समाजसेवा: अपना-अपना तरीका

                             

मैं ऑफिस बस से ही आती-जाती हूँ । ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा हैं । उस दिन भी बस काफ़ी देर से आई, लगभग आधे-पौन घंटे बाद। खड़े-खड़े पैर दुखने लगे थे । पर चलो शुक्र था कि बस मिल गई । देर से आने के कारण भी और पहले से ही बस काफी भरी हुई थी। बस में चढ़ कर मैंनें चारों तरफ नज़र दौडाई तो पाया कि सभी सीटें भर चुकी थी । उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आई। तभी एक मजदूरन ने मुझे आवाज़ लगाकर अपनी सीट देते हुए कहा, "मैडम आप यहां बैठ जाये ।" मैंनें उसे धन्यवाद देते हुए उस सीट पर बैठकर राहत की सांस ली। वो महिला मेरे साथ बस स्टाप पर खड़ी थी तब मैंने उस पर ध्यान नही दिया था।

कुछ देर बाद मेरे पास वाली सीट खाली हुई, तो मैंने उसे बैठने का इशारा किया। तब उसने एक महिला को उस सीट पर बिठा दिया जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था। वो मजदूरन भीड़ की धक्का-मुक्की सहते हुए एक पोल को पकड़कर खड़ी थी। थोड़ी देर बाद बच्चे वाली औरत अपने गन्तव्य पर उतर गई। इस बार वही सीट एक बुजुर्ग को दे दी, जो लम्बे समय से बस में खड़े थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि हम दिन-रात बस की सीट के लिये लड़ते है और ये सीट मिलती है और दूसरे को दे देती हैं।

कुछ देर बाद वो बुजुर्ग भी अपने स्टाप पर उतर गए, तब वो सीट पर बैठी। मुझसे रहा नही गया, तो उससे पूछ बैठी,  "तुम्हें तो सीट मिल गई थी एक या दो बार नही, बल्कि तीन बार, फिर भी तुमने सीट क्यों छोड़ी? तुम दिन भर ईट-गारा ढोती हो, आराम की जरूरत तो तुम्हें भी होगी, फिर क्यों नही बैठी? मेरी इस बात का जवाब उसने दिया उसकी उम्मीद मैंने कभी नही की थी। उसने कहा, "मैं भी थकती हूँ। आप से पहले से स्टांप पर खड़ी थी, मेरे भी पैरों में दर्द होने लगा था।

जब मैं बस में चढ़ी थी तब यही सीट खाली थी। मैंने देखा आपके पैरों में तकलीफ होने के कारण आप धीरे-धीरे बस में चढ़ी । ऐसे में आप कैसे खड़ी रहती इसलिये मैंने आपको सीट दी। उस बच्चे वाली महिला को सीट इसलिये दी उसकी गोद में छोटा बच्चा था जो बहुत देर से रो रहा था। उसने सीट पर बैठते ही सुकून महसूस किया। बुजुर्ग के खड़े रहते मैं कैसे बैठती, सो उन्हें दे दी। मैंने उन्हें सीट देकर ढेरों आशर्वाद पाए। कुछ देर का सफर है मैडम जी, सीट के लिये क्या लड़ना।

वैसे भी सीट को बस में ही छोड़ कर जाना हैं, घर तो नहीं ले जाना ना। मैं ठहरी ईट-गारा ढोने वाली, मेरे पास क्या हैं, न दान करने लायक धन हैं, न कोई पुण्य कमाने लायक करने को कुछ। रास्ते से कचरा हटा देती हूं, रास्ते के पत्थर बटोर देती हूं, कभी कोई पौधा लगा देती हूं। यहां बस में अपनी सीट दे देती हूं। यही है मेंरे पास, यही करना मुझे आता है। "वो तो मुस्करा कर चली गई पर मुझे आत्ममंथन करने को मजबूर कर गई।

"मुझे उसकी बातों से एक सीख मिली कि"

 हम बड़ा कुछ नही कर सकते  तो समाज में एक छोटा सा, नगण्य दिखने वाला कार्य तो कर सकते हैं ।

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